राहुल एक साधारण सा लड़का था —
बचपन से उसे सिखाया गया कि "लड़के रोते नहीं",
"तुम मजबूत हो, तुम्हें कभी थकना नहीं है"।
धीरे-धीरे राहुल बड़ा हुआ।
पढ़ाई, नौकरी, शादी — सब कुछ जिम्मेदारी से निभाता गया।
उसकी पत्नी रिया, घर का काम करती थी, और राहुल ऑफिस जाता था।
दिखने में तो सब कुछ "सामान्य" था।
पर कोई नहीं जानता था कि राहुल हर दिन खुद को कितना थामता था।
ऑफिस की टेंशन, पैसों की चिंता, घर की जरूरतें, माता-पिता की उम्मीदें, बच्चों का भविष्य — सब कुछ उसके दिल में बोझ बनकर बैठा था।
कभी वह थकता भी था, कभी टूटता भी था,
पर उसे तो "मजबूत" बने रहना था, क्योंकि दुनिया कहती है — "तुम लड़के हो"।
कभी-कभी रिया कहती —
"मैं घर का सारा काम करती हूं, तुम तो बस ऑफिस जाते हो!"
राहुल मुस्कुरा देता।
पर वो अपना दर्द कहां बयां कर पाता?
क्योंकि उसे सिखाया गया था — दर्द दिखाना कमजोरी है।
असल में,
रिया के काम की भी इज्जत होनी चाहिए थी,
राहुल के संघर्ष की भी कद्र होनी चाहिए थी।
लेकिन दोनों ने कभी एक-दूसरे की पीड़ा को ठीक से समझा ही नहीं।
समस्या यह नहीं थी कि जिम्मेदारियाँ ज़्यादा थीं,
समस्या यह थी कि कोई किसी की सुनता नहीं था।
राहुल की कहानी सिखाती है —
"जिम्मेदारी का बोझ तभी हल्का होता है, जब दोनों मिलकर उठाते हैं, जब दोनों एक-दूसरे की तकलीफों को सुनते और समझते हैं।"